रविवार, फ़रवरी 25, 2007

अब तो मै बस - संदीप खरे

अब तो मै बस दिन की बही के कागज़ भरता हूँ
रटे रटाए तोते जैसा साईन करता हुँ

हर झंझट से हर टंटे से रहता हूँ मै दूर
जवाब कैसे? असल में मुझको सवाल ना मंजूर
मैने किया है समझौता अब इन सब प्रश्नों से
ना वो सताए और सताए जाए ना मुझसे
नाग की तरह बधीरता की बीन पे हिलता हूँ

अब तो छाती मेरी केवल डर भर लेती है
पर्वत देख के गहराई ही याद आती है
अब कहा की दिलखुश बातें गगन से होती है?
अब तो रात भी पहले जैसी नही मचलती है
बिलंगरी से कलंदरी का गाना गाता हूँ

समझा जब से जीवन की इस भारी उलझन को
इत्र की तरह उड गई मेरी मन की खुशियाँ यों
मेरे दर पे अब तो कोई शौक न आता है
अब तो मेरा सदा बोरियत से ही नाता है
बोरियत से भी अब मै बस बोर हो जाता हूँ

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कवि: संदीप खरे
कविता: आताशा मी फक्त रकाने
भावानुवाद: तुषार जोशी नागपुर

शनिवार, फ़रवरी 24, 2007

बिजली ना बादल - संदीप खरे

बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने
सिर्फ इतना है कि मैने तुमको देखा सामने

शोख इन गालों पे देखो छुप के आती लालियाँ
छुपके छुपके जब से मुझको तुम लगे हो देखने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने

कितनी कोमल फूल मेरे उम्र तेरी है अभी
रंग हो गए बोझ लगती पंखुडीयाँ है कापने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने

सब सितारे पा के भी नाराज रहता है गगन
इक सितारा जब भी धरती पर है दिखता सामने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने

देख तुझको गजरे के सब रंग उड गये है यहाँ
उसकी पीडा खुशबू बनकर अब लगी है फैलने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने

सुबह मैने तेरी फुलों से नज़र उतारली
जाने कितने लोग सपने में लगे है देखने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने

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कविता: मेघ नसता वीज नसता
कवि: संदीप खरे
भावानुवाद: तुषार जोशी नागपुर
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कितना प्यारा, कितना सुंदर - संदीप खरे

कितना प्यारा, कितना सुंदर
ऐसा अपना दूर ही रहना
मेरे लिये तुम बाद में मेरे
उसी जगह फिर आकर जाना

कभी अचानक सामने आना
साँसों का फिर रूक सा जाना
दर्द भरा रिश्ता है लेकिन
बडा सहारा इसका होना

देखके मुझको वो छिपती है
लेकिन मुझपर यूँ मरती है
मेरे पथ के फुलों पर वो
उसका छुपकर इत्र लगाना

भले ही हम तुम ना मिल पाये
भितर से यूँ मिलकर आयें
प्रश्न कभी उभरा ही नही जो
जवाब तुझमे उसका पाना

मुझे मिला है तेरा होना
तेरे कारण मेरा होना
मै तुमको थामें रहता हूँ
तुम भी मुझको थामे रहना

घिर आते है बादल जब भी
मन होता है मौन और भी
बरसे पानी वहाँ कही पर
और सियाही यहाँ मचलना

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कवि: संदीप खरे
कविता: कितिक हळवे कितिक सुंदर
भावानुवाद: तुषार जोशी नागपुर
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यह गीत आप यहाँ सुन सकते हैं। अवश्य सुने

बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं - संदीप खरे

बुरा बुरा कुछ कुछ अच्छा सा कह जाते हैं
आओ यारों जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं

शब्दों में खुदको बस यूँ उलझाते रहों तुम
दिल से जब तक ना अपने दिल मिल जातें हैं
आओ यारों जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं

देख के आँधी नाव नाव से करे इशारे
लौट जाए जब आँधी फिरसे बतियाते हैं
आओ यारों जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं

अपना सा गर दुख तुमको प्यारा लगता है
ना ना करके दिल को फिर से छलकातें हैं
आओ यारों जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं

कलकी कितनी चिंता देखो कतार देखो
कल के बादमें रोज ही फिरसे कल आते हैं
आओ यारों जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं

शब्द ले चलो हाथों में आधार रहेगा
राह अंधेरी सफर कठीन गाना गाते है
आओ यारों जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं

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कविता: जरा चुकीचे जरा बरोबर
कवि: संदीप खरे
भावानुवाद: तुषार जोशी नागपुर
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इस रचना को आप यहाँ सुन सकते है तुषार जोशी की आवाज़ में

तो क्या हुआ - संदीप खरे

तो क्या हुआ, जी लेंगे हम
तनहा सफर, जी लेंगे हम
अपनी हसी, अपने ही गम
लेकर यहाँ, पी लेंगे हम
तो क्या हुआ, जी लेंगे हम

रातों में कौन, दिन में कौन
जीवन भर का साया है कौन
सांसो में सास, पलों से पल
दिन को दिनोंसे, सी लेंगे हम
तो क्या हुआ, जी लेंगे हम

आंगन में बाडी थी ही नही
घर में आंगन था ही नही
घर का भ्रम, आंगन का भ्रम
बाडी के भ्रम में जी लेंगे हम
तो क्या हुआ, जी लेंगे हम

आए हो चुनाव आपका था
चले गये तो किसको क्या
अपनी ही बाट जोह कर यहाँ
अपने ही साथी हो लेंगे हम
तो क्या हुआ, जी लेंगे हम

माटी का घर और ये किवाड
माटी ही घर माटी किवाड
माटी के बदन को माटी आधार
माटी ही अपनी माटी ही ठीक
माटी में माटी हो लेंगे हम

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कविता: एव्हढच ना
कवि: संदीप खरे
भावानुवाद: तुषार जोशी नागपुर
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इस अनुवाद को आप यहाँ सुन सकते हैं। अवश्य सुने।

रविवार, फ़रवरी 18, 2007

बोलो कैसे जिना है - मंगेश पाडगावकर

बोलगाणी ईस काव्य ग्रन्थ में मंगेश पाडगावकर जी ने मराठी में सरल भाषा में अनेको प्यारी कविताओं को लिखा है। सांगा कसं जगायचं ये उनमें से ही एक कविता है। ईस कविता को आप यहाँ सुन सकतें है। अवश्य सुने।
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बोलो कैसे जीना है
रोते रोते
या गुनगुनाकर
आप बताओ

आँखों ही आँखों में आपकी
कोई बाट
जोहता है ना?
गरमा गरम खाना
कोई सलीके से
परोसता है ना?

जली कटी कहना है?
या दुआ देकर हसना है?
आप बताओ

बोलो कैसे जीना है
रोते रोते
या गुनगुनाकर
आप बताओ

भीषण अंधेरी
रात में जब
कुछ दिखाई नही देता है
आपके लिये
दीप लेकर
कोई जरूर खड़ा होता है

अंधेरे में चिढ़ना है?
या प्रकाश में उड़ना है?
आप बताओ

बोलो कैसे जीना है
रोते रोते
या गुनगुनाकर
आप बताओ

पाँव में काँटा
चूभता है
हा ये सच होता है
सुगंधित फूल
का खिलना
क्या सच नही होता है?

काँटों की तरह चूभना
या फुलों की तरह महकना?
आप बताओ

बोलो कैसे जीना है
रोते रोते
या गुनगुनाकर
आप बताओ


प्याला आधा
खाली है
ये भी कह सकते हो
प्याला आधा
भरा हुआ है
ये भी तो कह सकते हो

खाली है कहना है?
या भरा हुआ कहना है?
आप बताओ

बोलो कैसे जीना है
रोते रोते
या गुनगुनाकर
आप बताओ
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कवि- मंगेश पाडगावकर
काव्य संग्रह - बोलगाणी
मूल कविता - सांगा कसं जगायचं, कण्हत कण्हत की गाणं म्हणत, तुम्हीच ठरवा

भावानुवाद - तुषार जोशी, नागपुर

रविवार, फ़रवरी 11, 2007

घडीबाबा - कुसुमाग्रज

कविवर्य "कुसुमाग्रज" मराठी के जाने माने कवि हैं। बचपन में पाठ्यक्रम में हमें उनकी एक कविता हुआ करती थी। उस कविता कि स्मृति आज तक मन में ताज़ा है। "घड्याळबाबा" नामक उस कविता को सुनकर मन में अनेक सुखद क्षण उमड आते हैं। आज उस कविता का भावानुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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घडीबाबा दिवाल पर बैठते हैं
दिन भर टिक - टिक करते हैं
ठन ठन ठोका देते हैं
और कहते हैं -
बच्चों, छै बज गए
अब उठो,
बच्चों, आठ बज गए
अब नहाओ।
बच्चों, दस बज गए
अब खाना खाओ।
ग्यारह बज गए, स्कूल जाओ।

हम रोज घडीबाबा कि सुनते हैं।
पर इतवार को एक नहीं सुनते।
वो कहते है, छै बज गए, उठो,
हम सात बजे उठते हैं।
वो कहते हैं, आठ बज गए, नहाओ,
हम नौ बजे नहाते हैं।
वो कहते हैं, दस बज गए, खाना खाओ,
हम ग्यारह बजे खातें हैं।
और इतवार को स्कूल कि
तो छुट्टी होती है।
फिर घडीबाबा खूब गुस्सा करते हैं
जोर जोर से टिक टिक करते हैं
गुस्से से ठन ठन ठोके लगाते हैं
पर इतवार को हम उनकी तरफ
देखते भी नहीं।
देखा भी तो सिर्फ हँसते हैं
और खेलते रहते हैं।


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मूल कविता: घड्याळबाबा
मूल कवि: कुसुमाग्रज
हिन्दी भावानुवाद: तुषार जोशी, नागपुर