गुरुवार, सितंबर 13, 2007

तेरा मेरा नाता है क्या - संदीप खरे

तेरा मेरा नाता है क्या?
तुम देती हो... मै लेता हूँ
तुम लेती हो... मै देता हूँ
घडी घडी में रूप है बदलता
समय का पहिया सदा है चलता
हम दोनो में फर्क है कैसा
आपस में एक जैसा है क्या?

मुझे पता है उसे निन्द न आई होगी
सपने चल रहें होंगे आँखो में
करवट बदलेगी.. तनहाई होगी
मुझे पता है उसे निन्द न आई होगी
उसके सामने वही बादल.. जो मेरे सामने
उसके सामने हवी कोहरा.. जो मेरे सामने
उसके मेरे अर्धविराम भी वही, पूर्णविराम भी
तभी तो मै जब यहाँ बेचैन हूँ
उसकी पलकें भी ना झपकी होंगी
मुझे पता है उसे निन्द न आई होगी

सुखदुख बरसे हम पर जब भी
हँस दिये कभी रो लिये हम भी
राहें अपनी संग चलतीं है
जब चाहे नजरे मिलती है
ये किस जनम से लेकर चलें है
ये रिश्तों का राज है क्या?
तेरा मेरा नाता है क्या?

बागिचे लगायें है हमने इकठ्ठा
माटी में खेले है एक साथ
बालों में माटी है हमारे अब भी
दिल में सितारें है हमारे अब भी
दोंनों के हाथों पर एक दुजे जी रेखाएँ है
दोनों के दिल में एक दुजें की अदाएँ है
रात जब चाँदनी में भीग जायेगी, और मै बेनीन्द
तब बरफ की चादर के निचे बहती हो नदी
उस तरह हो बेनीन्द होगी
मुझे पता है उसे निन्द न आई होगी

ना रिश्ते को हो कोई नाम
दिल से मिलना दिल का काम
अलग अलग है सफर हमारे
फिर भी एक दुजे के है सहारे
जब भी मुझको काँटा चुभता है
तेरे दिल में ये दर्द है क्या?
तेरा मेरा नाता है क्या?

--------------------------------------------
कवि: संदीप खरे
मूल गायक: संदीप खरे
भावानुवाद: तुषार जोशी, नागपुर

रविवार, अगस्त 12, 2007

बारिष आयी - ग्रेस

मराठी के जाने माने कवि ग्रेस कि लिखी एक जानी मानी कविता "पाउस आला" पाठकों के लिये पेश है।

बारिष आयी

बारिश आयी बारिष आयी
पडते हैं ओले
जंगल में अटके है मवेशी
आओ अब भोले

मेघों के पर्वत गिरते हैं
बजती खाई क्यूँ
गाँव बेचारा बह जायेगा
बाढ लगाई क्यूँ

ठहर ज़रा तो दिल में प्रभो
नभ में कहाँ छिपे हो
लाऊ किनारे जरा बाढ में
छिपी नौकाओंको

गाँव में कोई नही बावला
फिरता रहता है जो
कहीं ना कोई भुजंग शापित
वंश तोड़ता है जो

यहाँ किसी ने रचा था कोई
रिमझिम बारिष गाना
आते जाते यहाँ डालता
वो चिडीया को दाना

~ ग्रेस

-------------------------------------------
मूल कविता: पाउस आला
कवि: ग्रेस
हिन्दी भावानुवाद: तुषार जोशी, नागपुर

गुरुवार, अप्रैल 05, 2007

गनपत लाला - बा. सी. मर्ढेकर

गनपत लाला बीडी पीकर
लकडी कोई चबाता था
इसी जगह बंगला बांधूंगा
मनमे ही कहता रहता था

आँख मीच के दायी वाली
भौ उठाकर बायी तरफ से
जैसे बेसुर तान गवैया
फेंक देता लकडी वैसे

गि-हाइकीकों को ठीक से देता
जिरा धनीया गेहू चावल
तेल बेचना और बनाना
हिसाब उसको आता केवल

सपनों पर धुआँ छाता था
बिडी का कभी मोमबत्तीका
पढता था लेटा रहता था
तुलसीदास रामायण गाथा

दरी पुरानी और एक बोरा
सिरहाने में लेकर रहना
धी की बदबू लेते सोना
आता था बस उसको इतना

हड्डी पसली पीस पीस कर
लाला की जिंदगी बीती
दुकान की जमीन को वो ही
हड्डी हड्डी चुभती रहती

कितनी ही लकडीया लालाने
यही थी फेंकी चबा चबाकर
दुकान की जमीं को वो भी
चूभती रहती रह रह कर

गणपत लाला बिडी दिवाना
पिते पिते यूँ ही मर गया
एक माँगी तो दो का तोहफा
भगवान ने अंधे को दिया

मूल कविता: गणपत वाणी
कवि: बा. सी. मर्ढेकर
हिन्दी भावानुवाद: तुषार जोशी, नागपुर

तुम घर में ना होते जब - संदीप खरे

तुम घर में ना होते जब
दिल टुकडे हो जाता है
जीवन के खुलते धागे
संसार उधड जाता है

आकाश फाडकर बिजली
गिरने सा अनुभव होता
धरती दिशा खोती है
वो चांद बिखर जाता है
तुम घर में ना होते जब

आकर किरन आंगन में
यूँ ही लौट जातें हैं
खिडकी पर थमकर झोंका
बस महक बिना जाता है
तुम घर में ना होते जब

तेरे बाहों में घुलकर
बिते समय की याँदे
सांसों बिन दिल रूक जाये
दिल यूँ ही रूक जाता है
तुम घर में ना होते जब

अब तुम ही बताओ घर को
मैं क्या कहकर समझाऊँ
पूजा घर का दीपक भी
संग मेरे बुझ जाता है
तुम घर में ना होते जब

ना बड़ा हुआ मै अब भी
ना ही स्वतंत्र हुआ हुँ
इतना समझा हूँ तुम बिन
ये जनम अटक जाता है
तुम घर में ना होते जब

---------------------------------------------------------------------
मूल कविता: नसतेस घरी तू जेव्हा
कवि: संदीप खरे
संगीत: सलील कुळकर्णी
हिन्दी भावानुवाद: तुषार जोशी, नागपुर
---------------------------------------------------------------------

आप इस गीत को तुषार जोशी नागपुर की आवाज़ में यहाँ सुन सकते हैं, अवश्य सुने

गुरुवार, मार्च 29, 2007

पल भर को साँसों का भर आना - संदीप खरे


सांग सख्या रे इस अल्बम मे से संदीप खरे और सलील कुलकर्णी का
एक बडा ही प्यारा गाना आज प्रस्तुत है।
---------------------------------------------------------------------

पल भर को सांसो का भर आना
और मेरे होठ कपकपा जाना
कैसा तेरा यादों में आना
तनन धीम त देरेना तेरेना
तनन धीम त देरेना तेरेना

हसना वो कपडों सा ही फिका फिका
मेरा ही रंग हो जाता था गहरा
सयानो सा ही बर्ताव तेरा होता था
दिवानो सा दिखता था मेरा चेहरा

पायल सन्नाटे में बजती है
कंगन की आहट खनकती है
फिर मेरा बावरा हुआ जाना
तनन धीम त देरेना तेरेना
तनन धीम त देरेना तेरेना

बातों के हजार मतलब निकालने मे
उलझा हुआ खोया था मै ऐसे
ना बोल गयी थी तुम यूँ उस दिन
कविता को मिलती है दाद जैसे

नींद खोके जागता ही रहता हूँ
रातों से भागता ही रहता हूँ
उफ तेरा खाबों में भी आना
तनन धीम त देरेना तेरेना
तनन धीम त देरेना तेरेना

सादगी के चिलमन के पिछे
रिश्ता नही, मौन ही तुमने जतन किया
शब्द ही नही मौन में भी अर्थ होता है
जीन्दगीके दिवाने पल को मालूम क्या ?

अपना भी रहता नही अब मै
अकेला ही रहता हूँ मै सब में
घूमते हुए हूँ ही खो जाना
तनन धीम त देरेना तेरेना
तनन धीम त देरेना तेरेना

---------------------------------------------------------------------

मूल कविता: लागते अनाम ओढ श्वासांना
कवि: संदीप खरे
संगीत: सलील कुळकर्णी
हिन्दी भावानुवाद: तुषार जोशी, नागपुर

शनिवार, मार्च 24, 2007

वीर मराठे दौडे सात दिवाने - कुसुमाग्रज

छत्रपती शिवाजी महाराज के सात जाँबाज सरदारों की दिलेर कहानी श्रेष्ठ कवि कुसुमाग्रज जी ने सात नामक उनकी कविता में चित्रित की है। आज उस कविता को प्रस्तुत करता हूँ।
----------------------------------------------------------------------

वीर मराठे दौडे सात दिवाने - कुसुमाग्रज

धन्य हो गये सुनकर आज कहानी
भाग आये रण से अपने सेनानी
औरतें भी होंगी शर्म से पानी पानी
दिन में ये कैसा घेरा अंधेरे ने

वीर मराठे दौडे सात दिवाने

वो सभी शब्द थे कठोर पीडादायी
जला गये छुकर दिल की गहराई
भागना नहीं है रीत मराठी भाई
ये भुला गये, आये हो क्या मुह दिखाने

वीर मराठे दौडे सात दिवाने

दातों में दबाकर होठ, वीर वि निकले
पठबंध सभी सीने पर हो गये ढीले
आँखों में उठा तुफाँन, किनारे गीले
म्यानोसे निकले तलवारों के सीने

वीर मराठे दौडे सात दिवाने

जब फेरा था मुह और आँखे थी गीली
छह सरदारों ने बात वो दिल पर ले ली
भाले, उठा, चल पडे, विदा भी ना ली
धूल के बादल सात बनाये हवा ने

वीर मराठे दौडे सात दिवाने

भौचक्की सेना देखे ये रह रह के
अपमान बुझाने छावनी में गनिमो के
घुस गये दिवाने हथेली पे सर ले के
उल्कायें बरसी सागर को यूँ जलाने

वीर मराठे दौडे सात दिवाने

आग ही आग थी बाजू से उपर से
सैकडो जगह से उन पर भाले बरसे
भीड में खो गये सात यूँ दिलेरी से
वो सातों पंछी आखिर तक हार ना माने

वीर मराठे दौडे सात दिवाने

पत्थर पर दिखता निशान उन टापों का
पानी में देखो रंग मिला है लहू का
अब तलक क्षितिज पर बादल उस माटी का
सुनो गाता है कोई उन के गाने

वीर मराठे दौडे सात दिवाने

---------------------------------------------------------------------------------
मूल कविता: सात
गीत: वेडात मराठे वीर दौडले सात
कवि: कुसुमाग्रज
हिन्दी भावानुवाद: तुषार जोशी, नागपुर

----------------------------------------------------------------------------------------
इस गीत को तुषार जोशी नागपुर की आवाज़ मे आप यहाँ सुन सकते हैं। अवश्य सुने।

----------------------------------------------------------------------------------------

मूल कविता कि कडिया :
http://ek-kavita.blogspot.com/2007/02/blog-post_9383.html
http://justmarathi.blogspot.com/2007/02/blog-post_1286.html
http://lahanpan.blogspot.com/2006/10/blog-post_17.html
http://shrirangjoshi.spaces.live.com/Blog/cns!2B4F96BCCF74F5BF!295.entry
http://jhingalala.com/marathi/?p=149
http://www.manogat.com/node/8013

रविवार, फ़रवरी 25, 2007

अब तो मै बस - संदीप खरे

अब तो मै बस दिन की बही के कागज़ भरता हूँ
रटे रटाए तोते जैसा साईन करता हुँ

हर झंझट से हर टंटे से रहता हूँ मै दूर
जवाब कैसे? असल में मुझको सवाल ना मंजूर
मैने किया है समझौता अब इन सब प्रश्नों से
ना वो सताए और सताए जाए ना मुझसे
नाग की तरह बधीरता की बीन पे हिलता हूँ

अब तो छाती मेरी केवल डर भर लेती है
पर्वत देख के गहराई ही याद आती है
अब कहा की दिलखुश बातें गगन से होती है?
अब तो रात भी पहले जैसी नही मचलती है
बिलंगरी से कलंदरी का गाना गाता हूँ

समझा जब से जीवन की इस भारी उलझन को
इत्र की तरह उड गई मेरी मन की खुशियाँ यों
मेरे दर पे अब तो कोई शौक न आता है
अब तो मेरा सदा बोरियत से ही नाता है
बोरियत से भी अब मै बस बोर हो जाता हूँ

-----------------------------------------------
कवि: संदीप खरे
कविता: आताशा मी फक्त रकाने
भावानुवाद: तुषार जोशी नागपुर

शनिवार, फ़रवरी 24, 2007

बिजली ना बादल - संदीप खरे

बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने
सिर्फ इतना है कि मैने तुमको देखा सामने

शोख इन गालों पे देखो छुप के आती लालियाँ
छुपके छुपके जब से मुझको तुम लगे हो देखने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने

कितनी कोमल फूल मेरे उम्र तेरी है अभी
रंग हो गए बोझ लगती पंखुडीयाँ है कापने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने

सब सितारे पा के भी नाराज रहता है गगन
इक सितारा जब भी धरती पर है दिखता सामने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने

देख तुझको गजरे के सब रंग उड गये है यहाँ
उसकी पीडा खुशबू बनकर अब लगी है फैलने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने

सुबह मैने तेरी फुलों से नज़र उतारली
जाने कितने लोग सपने में लगे है देखने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने

--------------------------------------------
कविता: मेघ नसता वीज नसता
कवि: संदीप खरे
भावानुवाद: तुषार जोशी नागपुर
--------------------------------------------

कितना प्यारा, कितना सुंदर - संदीप खरे

कितना प्यारा, कितना सुंदर
ऐसा अपना दूर ही रहना
मेरे लिये तुम बाद में मेरे
उसी जगह फिर आकर जाना

कभी अचानक सामने आना
साँसों का फिर रूक सा जाना
दर्द भरा रिश्ता है लेकिन
बडा सहारा इसका होना

देखके मुझको वो छिपती है
लेकिन मुझपर यूँ मरती है
मेरे पथ के फुलों पर वो
उसका छुपकर इत्र लगाना

भले ही हम तुम ना मिल पाये
भितर से यूँ मिलकर आयें
प्रश्न कभी उभरा ही नही जो
जवाब तुझमे उसका पाना

मुझे मिला है तेरा होना
तेरे कारण मेरा होना
मै तुमको थामें रहता हूँ
तुम भी मुझको थामे रहना

घिर आते है बादल जब भी
मन होता है मौन और भी
बरसे पानी वहाँ कही पर
और सियाही यहाँ मचलना

--------------------------------------------
कवि: संदीप खरे
कविता: कितिक हळवे कितिक सुंदर
भावानुवाद: तुषार जोशी नागपुर
--------------------------------------------

यह गीत आप यहाँ सुन सकते हैं। अवश्य सुने

बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं - संदीप खरे

बुरा बुरा कुछ कुछ अच्छा सा कह जाते हैं
आओ यारों जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं

शब्दों में खुदको बस यूँ उलझाते रहों तुम
दिल से जब तक ना अपने दिल मिल जातें हैं
आओ यारों जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं

देख के आँधी नाव नाव से करे इशारे
लौट जाए जब आँधी फिरसे बतियाते हैं
आओ यारों जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं

अपना सा गर दुख तुमको प्यारा लगता है
ना ना करके दिल को फिर से छलकातें हैं
आओ यारों जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं

कलकी कितनी चिंता देखो कतार देखो
कल के बादमें रोज ही फिरसे कल आते हैं
आओ यारों जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं

शब्द ले चलो हाथों में आधार रहेगा
राह अंधेरी सफर कठीन गाना गाते है
आओ यारों जिंदगी पर कुछ बतियातें हैं

--------------------------------------------------
कविता: जरा चुकीचे जरा बरोबर
कवि: संदीप खरे
भावानुवाद: तुषार जोशी नागपुर
--------------------------------------------------

इस रचना को आप यहाँ सुन सकते है तुषार जोशी की आवाज़ में

तो क्या हुआ - संदीप खरे

तो क्या हुआ, जी लेंगे हम
तनहा सफर, जी लेंगे हम
अपनी हसी, अपने ही गम
लेकर यहाँ, पी लेंगे हम
तो क्या हुआ, जी लेंगे हम

रातों में कौन, दिन में कौन
जीवन भर का साया है कौन
सांसो में सास, पलों से पल
दिन को दिनोंसे, सी लेंगे हम
तो क्या हुआ, जी लेंगे हम

आंगन में बाडी थी ही नही
घर में आंगन था ही नही
घर का भ्रम, आंगन का भ्रम
बाडी के भ्रम में जी लेंगे हम
तो क्या हुआ, जी लेंगे हम

आए हो चुनाव आपका था
चले गये तो किसको क्या
अपनी ही बाट जोह कर यहाँ
अपने ही साथी हो लेंगे हम
तो क्या हुआ, जी लेंगे हम

माटी का घर और ये किवाड
माटी ही घर माटी किवाड
माटी के बदन को माटी आधार
माटी ही अपनी माटी ही ठीक
माटी में माटी हो लेंगे हम

-----------------------------------------------
कविता: एव्हढच ना
कवि: संदीप खरे
भावानुवाद: तुषार जोशी नागपुर
----------------------------------------------
इस अनुवाद को आप यहाँ सुन सकते हैं। अवश्य सुने।

रविवार, फ़रवरी 18, 2007

बोलो कैसे जिना है - मंगेश पाडगावकर

बोलगाणी ईस काव्य ग्रन्थ में मंगेश पाडगावकर जी ने मराठी में सरल भाषा में अनेको प्यारी कविताओं को लिखा है। सांगा कसं जगायचं ये उनमें से ही एक कविता है। ईस कविता को आप यहाँ सुन सकतें है। अवश्य सुने।
--------------------------------------------------------

बोलो कैसे जीना है
रोते रोते
या गुनगुनाकर
आप बताओ

आँखों ही आँखों में आपकी
कोई बाट
जोहता है ना?
गरमा गरम खाना
कोई सलीके से
परोसता है ना?

जली कटी कहना है?
या दुआ देकर हसना है?
आप बताओ

बोलो कैसे जीना है
रोते रोते
या गुनगुनाकर
आप बताओ

भीषण अंधेरी
रात में जब
कुछ दिखाई नही देता है
आपके लिये
दीप लेकर
कोई जरूर खड़ा होता है

अंधेरे में चिढ़ना है?
या प्रकाश में उड़ना है?
आप बताओ

बोलो कैसे जीना है
रोते रोते
या गुनगुनाकर
आप बताओ

पाँव में काँटा
चूभता है
हा ये सच होता है
सुगंधित फूल
का खिलना
क्या सच नही होता है?

काँटों की तरह चूभना
या फुलों की तरह महकना?
आप बताओ

बोलो कैसे जीना है
रोते रोते
या गुनगुनाकर
आप बताओ


प्याला आधा
खाली है
ये भी कह सकते हो
प्याला आधा
भरा हुआ है
ये भी तो कह सकते हो

खाली है कहना है?
या भरा हुआ कहना है?
आप बताओ

बोलो कैसे जीना है
रोते रोते
या गुनगुनाकर
आप बताओ
--------------------------------------------------------

कवि- मंगेश पाडगावकर
काव्य संग्रह - बोलगाणी
मूल कविता - सांगा कसं जगायचं, कण्हत कण्हत की गाणं म्हणत, तुम्हीच ठरवा

भावानुवाद - तुषार जोशी, नागपुर

रविवार, फ़रवरी 11, 2007

घडीबाबा - कुसुमाग्रज

कविवर्य "कुसुमाग्रज" मराठी के जाने माने कवि हैं। बचपन में पाठ्यक्रम में हमें उनकी एक कविता हुआ करती थी। उस कविता कि स्मृति आज तक मन में ताज़ा है। "घड्याळबाबा" नामक उस कविता को सुनकर मन में अनेक सुखद क्षण उमड आते हैं। आज उस कविता का भावानुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।
------------------------------------------------------------------
घडीबाबा दिवाल पर बैठते हैं
दिन भर टिक - टिक करते हैं
ठन ठन ठोका देते हैं
और कहते हैं -
बच्चों, छै बज गए
अब उठो,
बच्चों, आठ बज गए
अब नहाओ।
बच्चों, दस बज गए
अब खाना खाओ।
ग्यारह बज गए, स्कूल जाओ।

हम रोज घडीबाबा कि सुनते हैं।
पर इतवार को एक नहीं सुनते।
वो कहते है, छै बज गए, उठो,
हम सात बजे उठते हैं।
वो कहते हैं, आठ बज गए, नहाओ,
हम नौ बजे नहाते हैं।
वो कहते हैं, दस बज गए, खाना खाओ,
हम ग्यारह बजे खातें हैं।
और इतवार को स्कूल कि
तो छुट्टी होती है।
फिर घडीबाबा खूब गुस्सा करते हैं
जोर जोर से टिक टिक करते हैं
गुस्से से ठन ठन ठोके लगाते हैं
पर इतवार को हम उनकी तरफ
देखते भी नहीं।
देखा भी तो सिर्फ हँसते हैं
और खेलते रहते हैं।


------------------------------------------------------------------
मूल कविता: घड्याळबाबा
मूल कवि: कुसुमाग्रज
हिन्दी भावानुवाद: तुषार जोशी, नागपुर

शुक्रवार, जनवरी 26, 2007

सूरज उग आया था - सुरेश भट

सूरज उग आया था


इतना पता चला मुझको, जब चिता पर चढाया था
मौत छुडा ले गई है, ज़िंदगी ने सताया था।

पत्थरदिल ये दुनिया, कुछ कहने से ना बदली
शब्दों का चढावा मैने, खाम्खाह चढाया था।

जो बित गया वो सुखद अनुभव भूल जाते हैं
(क्या मौसम भी जिवन में, कभी लौट के आया था)

जब मैने सुनाई तुमको, मेरी वो प्रेम कहानी
तब मैने नाम तुम्हारा चुपचाप छुपाया था

इस बात का रोना है, के रोते ना बना हमसे
रंग तेरे खाबों का, आसूँओ में मिलाया था

सिर्फ तेरे यादों की मन में बौछार हुई थी
आभास तुम्हारा मैनें सीने से लगाया था

घर खोजने निकला मै, यहाँ वहाँ मै भटका
वो टुटा फुटा निकला जो दरवाजा पाया था

उस रात अकेला मैं जलता ही रहा आशा में
मै बूझ गया जब सुबहा का सूरज उग आया था


मूल कविता: आकाश उजळले होते
मूल कविः सुरेश भट
कविता संग्रहः एल्गार
भावानुवादः तुषार जोशी, नागपूर

गुरुवार, जनवरी 25, 2007

मैं ये आँधी झेल जाउंगा - प्रसन्न शेंबेकर

प्रसन्न शेंबेकर मेरे कवि मित्र हैं। उनकी ये पंक्तियाँ हमेशा मेरा उत्साह वर्धन करती रहती हैं।


मैं ये आँधी झेल जाउंगा
ऐसा आत्मविश्वास है।
पाँव के निचे मेरी जमीँ
और ये मेरा आकाश है।
पाँव गडाकर मेरा निश्चय
सह्याद्रि सा नीडर है।
आओ आँधीयों आज तुम्हारी
पर्वत के संग टक्कर है।


कवि - प्रसन्न शेंबेकर, नागपुर
अनुवाद - तुषार जोशी, नागपुर