सम्हल सम्हल के नाँव चलाना नामंजूर
मुझे हवा की राह देखना नामंजूर
तय करता मैं दिशा भी बहते पानी की
मौज हिलाए जैसे, हिलना नामंजूर
नहीं चाहिये मौसम की सौगात मुझे
नहीं चाहिये शुभ शकुनों का साथ मुझे
मन करता हो वही महुरत है मेरा
मौका देख के खेल खेलना नामंजूर
अपने हाथों अपनी मौत मै मरता हूँ
मोह के लिये देह भी गिरवी रखता हूँ
खूबसूरती देख जिंदगी है कुरबान
अबरू का बेतुका बहाना नामंजूर
झगडा वगडा और मनाना है हरदम
तेरा मेरा हिसाब रखना है हरदम
जमा खर्च यहीं लेता हूँ देता हूँ
आसमान से चुगली करना नामंजूर
मनकी करने को शाप ना माना मैने
उपभोग को कभी पाप ना माना मैने
काले बादल जिससे गुजरे ना हो
आसमान वो कभी देखा ना मैने
गणीत नीती का मुझसे तो रक्खो दूर
रगों में बहता खून असली जीवन का नूर
खून बहाकर जीते रहना मुझे पता
अपने खून का गरूर करना नामंजूर
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मूल कविता: नामंजूर
कवी: संदीप खरे
अल्बम: नामंजूर
हिन्दी भावानुवाद: तुषार जोशी, नागपूर
बहुत दिनों बाद नजर आये तुषार भाई.
जवाब देंहटाएंआपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
अच्छा िलखा है आपने । दीपावली की शुभकामनाएं । दीपावली का पवॆ आपके जीवन में सुख समृिद्ध लाए । दीपक के प्रकाश की भांित जीवन में खुिशयों का आलोक फैले, यही मंगलकामना है । दीपावली पर मैने एक किवता िलखी है । समय हो तो उसे पढें और प्रितिक्रया भी दें-
जवाब देंहटाएंhttp://www.ashokvichar.blogspot.com
Awesome !
जवाब देंहटाएंThanks Shubham and all.
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